बिहार बोर्ड के दसवीं और बारहवीं के इम्तेहान खत्म हुए हैं. बस अब रिजल्ट आने भर की देरी है. हर साल की तरह इस साल भी ये चर्चा होगी, और फिर अगले साल खराब रिलज्ट आने तक मुल्तबी कर दी जाएगी.

पिछले महीने बिहार बोर्ड के दसवीं और बारहवीं के इम्तेहान खत्म हुए हैं. बस अब रिजल्ट आने भर की देरी है फिर सभी न्यूज चैनल वाले प्राइम-टाइम में ज्ञाताओं और नेताओं के साथ इस पर समीक्षा करते नज़र आएंगे. ज्ञाता सरकार की कमियों को गिनवाएंगे और नेता विपक्ष पर इस रिज़ल्ट का ठीकरा फोड़ेंगे और होने जाने वाला कुछ भी नहीं है इन चर्चाओं से. एक सप्ताह तक मुद्दा गर्माया रहेगा, आरोप-प्रत्यारोप का खेल चलेगा. कुछ लोग गिरफ़्तार होंगे और कुछ शिक्षा-अध्यक्षों को बर्खास्त किया जायेगा. इन चीजों से टीवी चैनल्स की TRP बनी रहेगी और फिर सब शांत हो जायेगा.

हर साल की तरह इस साल भी ये चर्चा अगले साल खराब रिलज्ट आने तक मुल्तबी कर दी जाएगी.

वैसे इस साल जिन कारणों से ये बोर्ड परीक्षाएं सुर्खियों में रही हैं उनमें से प्रमुख कारण रहे- सभी परीक्षा केंद्रों पर कदाचार रोकने से लिए सीसीटीवी कैमरे का लगाया जाना. साथ में परीक्षार्थियों को जूता-मोजा पहन कर परीक्षा केंद्र में न आने के लिए बाध्य करना और 25 छात्रों पर एक परीक्षक का होना.

देखा जाए तो ये सभी कदम स्वागत योग्य हैं क्योंकि बिहार की जो एक छवि बन गयी थी कि वहां के बच्चे चोरी से इम्तेहान पास करते हैं, उस बात को एक तरह से इन प्रयासों द्वारा खंडित करने की कोशिश की गयी है. मगर इन सभी कारणों से दसवीं और बारहवीं मिलाकर लगभग साठ से सत्तर हज़ार विद्यार्थिओं ने परीक्षा नहीं देने का फैसला लिया. ठीक कुछ इसी तरह की खबर उत्तर प्रदेश भी आयी.

अब सोचने के लिए कई मुद्दे हैं, जिन पर विचार और बहस होना चाहिए. आखिर उन बच्चों ने इम्तेहान देने से अपने हाथ क्यों खींच लिए? क्यों सरकार को ये सीसी टीवी वाला आइडिया परीक्षा के ठीक पहले आया. यही कैमरे अगर साल भर पहले स्कूलों में लगाए गए होते तो आज वो हजारों बच्चें इम्तेहान के डर से घर पर नहीं बैठ जाते. आज 25 बच्चों पर एक परीक्षक बैठाया गया है अगर यही सरकार पहले सोचती और स्कूलों में शिक्षकों की कमी को समझती तो इतने परीक्षकों की जरुरत ही नहीं पड़ती. ऐसे बहुत से मुद्दे हैं जिनपर अगर पहले से विचार किया जाता तो आज ये हजारों बच्चे साल भर के लिए पीछे नहीं जाते.

इन मुद्दों में जो सबसे प्रमुख मुद्दा है, वो है शिक्षकों की कमी और गुणवत्ता का आभाव. इसको समझने के लिए थोड़ा पीछे जाने की आवश्यता है. जब नितीश कुमार पहली बार मुख्यमंत्री बने तो अपने पहले कार्यकाल के दौरान उन्होंने 2005 से 2010 के दौरान कुल 95000 शिक्षकों को बहाल किया. जिनमें हाई-स्कूल के शिक्षकों से लेकर शिक्षामित्र तक शामिल थे. ये बहालियां सिर्फ इस बेसिस पर ली गयीं कि उन्होंने सालों पहले टीचर्स-ट्रेनिंग किया हुआ था.

ये अच्छी बात है कि 95000 बेरोज़गार लोगों को नौकरियां मिलीं मगर उनका व्यवहारिक-ज्ञान कितना था इसकी जांच की जरुरत नहीं समझी गयी. न ही किसी ने ये सोचने की ज़हमत उठाई कि इन 95 हजार लोगों में राज्य की आने वाली नस्लों का भविष्य सौंपा जा रहा है. अगर शिक्षकों में समान्य-ज्ञान तक नहीं है तो सोचिये राज्य की कितनी नस्लें बर्बाद होंगी और हो रही हैं.

खैर, 2014-15 में जब ख़राब रिजल्ट आए तो सरकार को शिक्षकों की बहाली पर हल्का संदेह हुआ. उस संदेह में जांच हुई और पता चला कि इनकी बहाली में धांधली हुई है. 95000 में से 40000 फर्ज़ी डिग्री वाले शिक्षकों का पता चला और ताज्जुब की बात ये है कि बर्खास्त सिर्फ 3000 हजार शिक्षक ही हुए. इससे आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि इन सरकारी स्कूलों में जो शिक्षा दी जा रही है उसका स्तर क्या है?

ऊपर से कोढ़ में खाज ये कि जो शिक्षक हैं वो स्कूल भी नियमित रूप से नहीं आते. अधिकांश शिक्षकों ने अपने शहर या गांव में तबादला करवा लिया है जहां वो पढ़ाना छोड़ बाकी हर तरह के व्यवसाय में तल्लीन हैं.

सरकार दावा करती है कि राज्य के लिए जो बजट मिल रहा है उसका 20 फीसदी हिस्सा शिक्षा के क्षेत्र में जा रहा है तो फिर परिवर्तन क्यों नहीं दिखाई दे रहा? क्यों छात्र इम्तेहान देने से कतरा रहे हैं.

अब आते हैं दूसरे मुद्दे पर. जब वक़्त पर शिक्षण-समाग्री नहीं उपलब्ध करवाई जाएगी तो पढाई कहां से होगी? राज्य के अन्य जिलों को छोड़ देते हैं, राजधानी पटना की बात करते हैं. पटना में कुल 190 राजकीय विद्यालय हैं जिनमें से लगभग 74 ऐसे स्कूल हैं जिनका अपना भवन नहीं है. अब आप इसी से अंदाजा लगाइये जब स्कूल की इमारत नहीं है. ये 74 स्कूल किसी दूसरे स्कूल के प्रांगण में चलाये जा रहे हैं तो यहां शिक्षकों की कमी का क्या अनुपात होगा. जबकि सरकारी नियम के मुताबिक एक किलोमीटर पर एक प्राथमिक विद्यालय और तीन से पांच किलोमीटर के दायरे में एक मध्य विद्यालय होना चाहिए, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है. जब राजधानी का यह हाल है तो, अन्य जिलों का क्या कहना. साथ ही साथ यह भी बताती चलूं कि कई स्कूलों में आधा सत्र बीत जाने के बाद भी पाठ्य-पुस्तक मुहैया नहीं करवाई जातीं, तो छात्र पढ़ाई कहां से करेंगे?

इन सबके अलावा एक और अहम मुद्दा है जिसको हम अनदेखा नहीं कर सकते हैं वो है अभिवावकों में जागरूकता का अभाव. लेकिन वैसे गलती उन अभिवावकों की भी नहीं है. इन सरकारी स्कूलों में उन अभिवावकों के बच्चे ही पढ़ने जाते हैं या भेजे जाते हैं जिनकी माली हालत खराब हो यानी आर्थिक रूप से जर्जर. दूसरी बात वो स्वयं इतने पढ़े-लिखे भी नहीं होते हैं कि पढाई की महत्ता को समझ सकें. उनके लिए बस पढाई इसीलिए जरुरी है कि थोड़ा पढ़ लेगा तो थोड़ा ज्यादा पैसे कमा लेगा. इससे ज्यादा कुछ भी नहीं.

मगर वही कुछ अभिवावक अपनी तमाम कमियों से जूझते हुए भी अपने बच्चों को इन स्कूलों में भेजने के अलावा ट्यूशन वगरैह की व्यवस्था भी कर देते हैं. अब यहां से बच्चों की ज़िम्मेवारी बनती है कि वो पढाई पर फोकस करें. लेकिन आज जिस तरह से इंटरनेट की उपलब्धता बढ़ी है अधिकांश बच्चे सही मार्गदर्शन के आभाव में अपने अमूल्य समय को उन चीज़ों में बर्बाद कर रहे हैं.

कुल मिला कर देखा जाये तो स्तिथि बहुत ही चिंताजनक है. सुधार के लिए सरकार को वोट बैंक से निकलकर सोचने की जरूरत है. पहले तो शिक्षकों की रिक्तियों को सही तरीके से भरना चाहिए. फिर जो शिक्षक हैं उन्हें नई चीज़ों की ट्रेनिंग देकर इम्तेहान लेना चाहिए और जो पास करें उन्हें ही आगे नौकरी का हक़ मिलना चाहिए.

ये कोई हंसी-ठट्ठे की बात नहीं है, लाखों विद्यार्थियों के भविष्य का सवाल है. इन विकट परिस्थितियों में अगर सरकार ये सोचकर निश्चिंत हो रही है कि, हमने कैमरा लगा दिया और कदाचार नहीं हुआ तो हम सफल हो गए, तो शर्मिंदगी से ज्यादा कुछ भी नहीं है. 

Content by : Anu Roy

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