मुज़फ्फरपुर के पानी टंकी चौक से चर्च रोड का यह नज़ारा देखिये। नालों की सफाई तो हो रही है पर पूरे सड़क को नरक में तब्दील कर दिया गया है।

आपने शायद ऐसा बहुत कम देखा होगा की एक तरफ नाले की सफाई करके ओ भी मशीन से नही बल्कि जो नगर निगम के मजदुर है ओ उन नाले के कचरे में प्रवेश करते है और उसको बाहर निकाल सड़क पर फेक देते है।

इनमे उनकी कोई गलती नही, क्योकि उनका तो पेट का सवाल है बड़े बाबू का निर्देश मानना पड़ता है और पापी पेट के लिए गंदगी क्या नरक में भीं जाने के लिए तैयार हों जाता है।

मगर सबसे बड़ा सवाल यह है कि एक ओर नगर निगम महंगे महंगे संसाधन खरीदने की बात करता है, जब नगर निगम इन सुविधाओं के लिए लाखों करोड़ो के बजट आवंटन होते है तो फिर ऐ रुपये जाते कहां है।

आज भी इन मजदूरो को नालों में प्रवेश कर कचरा निकालना पड़ता है तो फिर उन मशीनों का क्या कार्य। सबसे दुःख की बात तो यह है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा हमारे मुज़फ़्फ़रपुर को पूरे विश्व के प्रदुषण के मामले में 9वाँ स्थान मिला है फिर हम सुधरने के लिए तैयार नही है।

जरा सोचिए इन गंदे कचरे को बाहर निकाल सड़को पर छोड़ देते है जिससे गन्दी दुर्गंध निकलती है जो कई बीमारियों को आमंत्रित करती है और महीनो महीनो प्रदुषण फैलाती है। इन कचरों से डेंगू मच्छर फैलते है जिससे कई लोग बीमार भी हो चुके है।

 

पुरे सड़क पर गीली कचड़े बिछ जाने के कारण कई लोग इस पर बाइक चलाते हुए फिसल भी चुके है जिससे कई बार दुर्घटना भी हो चुकी है।

पता नही मुज़फ़्फ़रपुर नगर निगम अपने चाल चलन को कब सुधारेगा। ऐसा लगता हैं की मुज़फ़्फ़रपुर नगर निगम सिर्फ टैक्स वसूलने का अड्डा बन चूका है, उन्हें जनता की सुख सुविधाओं सें कोई लेना देना नही।

केन्द्र सरकार का सबसे बड़ा अभियान स्वच्छता का है। लेकिन हैरानी की बात तो यह है कि सीवरेज की सफाई करते वक्त देश भर से आने वाली सफाई कर्मियों की मौतों को लेकर कोई हलचल नहीं है। आजकल हम सैनीटेशन का मतलब सिर्फ शौचालय ही समझते हैं। मगर,इसका बड़ा हिस्सा है शहरों की सफाई और सीवरेज का ट्रीटमैंट करना। स्वच्छता के ज्यादातर विज्ञापन शौचालय को लेकर ही बने हैं, कचरा फैंकने को लेकर बने हैं, मगर सफाई कर्मियों की सुरक्षा, उनके लिए जरूरी उपकरणों का जिक्र कहीं नजर नहीं आता। ऐसा क्यों कर रही हैं सरकारें? क्यों नजरअंदाज हो रहे हैं गरीब दलित लोग जो एक समय की रोटी के लिए उस गंदगी में उतर जाते हैं जहां बीमारी तो तय ही है लेकिन मौत कब दस्तक दे दे, किसी को पता नहीं।

क्या आपको पता है कि देश की किसी भी राज्य सरकार ने हाथ से मैला साफ करने की प्रथा से जुड़े आंकड़े इकट्ठा करने का कोई बीड़ा नहीं उठाया है। वे ये दिखाना चाहते हैं कि ऐसी कोई प्रथा है ही नहीं। इस काम के खिलाफ कोई मुकद्दमा दर्ज नहीं होता। ऐसे लोगों को अधिकतर मुआवजा नहीं मिलता, जबकि 2013 के कानून में हाथ से मैला साफ करने वालों को 10 लाख रुपए मुआवजा देने का प्रावधान है। नैशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो राज्यवार सीवर की सफाई करने के दौरान दुर्घटना में हुई मौतों का आंकड़ा इकट्ठा करता है  लेकिन सैप्टिक टैंक और सीवरेज में घुसने के दौरान हुई मौतों का कोई राष्ट्रीय आंकड़ा इकट्ठा नहीं होता। आखिर क्यों? क्या इस काम को करने वाले लोग इंसान नहीं हैं? हम देश भर में शौचालयों, टैलीविजन और स्कूटरों का आंकड़ा इकट्ठा कर सकते हैं तो हाथ से मैला साफ करने वालों के बारे में कोई आंकड़ा क्यों नहीं इकट्ठा कर सकते।

 

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