उत्तरप्रदेश लोकसभा उपचुनाव के नतीजे विपक्षी खेमे के लिए बेशक सकारात्मक रहे हैं मगर कांग्रेस की सियासत के लिए निराशा का दौर थमने का नाम नहीं ले रहा। गोरखपुर और फूलपुर में कांग्रेस का सपा-बसपा की दोस्ती में शामिल न होकर चुनाव लड़ने का दांव भी फ्लाप साबित हुआ है। राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी गोलबंदी की कोशिशों का पताका थाम रही कांग्रेस के लिए इन नतीजों ने उत्तरप्रदेश की सियासी राह और मुश्किल कर दी है। कांग्रेस उम्मीदवारों का गोरखपुर और फूलपुर में जमानत जब्त होना एक बार फिर यह साबित कर गया कि पार्टी के तमाम दावों-प्रयासों के बाद भी हालत सुधरती नहीं दिख रही है। इन दोनों सीटों पर बसपा सुप्रीमो मायावती के सपा का समर्थन करने के ऐलान के बाद भी कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने एकला चलो की राजनीतिक राह चुनी।

-बीते 10 साल से उत्तरप्रदेश में कांग्रेस की किस्मत बदलने का राहुल का दांव नहीं हो रहा कामयाब

अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा और पीएम नरेंद्र मोदी को चुनौती देने के लिए इस उपचुनाव को व्यापक विपक्षी गोलबंदी का पहला प्रयोग मानते हुए कांग्रेस के भी इसमें शामिल होने की उम्मीद की जा रही थी। पर कांग्रेस ने राजनीतिक जमीन की नब्ज का अहसास करने के मकसद से खुद ही अपने पैर पर एक तरह से कुल्हाड़ी मार ली है। नतीजों ने साफ कर दिया कि चाहे गठबंधन हो या फिर अकेले जाने का विकल्प कामयाबी की राह कांग्रेस से अभी कोसों दूर दिख रही है।

राहुल गांधी भले ही उपचुनाव में कांग्रेस की हालत पर यह कह कर बचाव करें कि रातोंरात पार्टी की सूरत नहीं बदली जा सकती। मगर राजनीतिक हकीकत यह भी है कि बीते दस साल यानी 2007 से उत्तरप्रदेश में पार्टी को मुख्यधारा में लाने का राहुल का कोई दांव कामयाब नहीं हुआ है। उलटे कांग्रेस का ग्राफ लगातार नीचे जाते हुए लगभग शून्य के मुकाम पर है। दोनों सीटों पर पार्टी उम्मीदवारों के जमानत जब्त होने के बाद उत्तरप्रदेश में कांग्रेस की राजनीतिक हैसियत गठबंधन की सियासत के लिहाज से और कमजोर हुई है।

कांग्रेस 2019 में सपा-बसपा की संभावित दोस्ती का हिस्सा बनना चाहेगी तो उसे अपनी इसी कमजोर हैसियत के साथ दोनों के रहमोकरम पर निर्भर रहना पड़ेगा। गोरखपुर और फूलपुर में कांग्रेस ने अपने उम्मीदवार उतारने की बजाय सपा का समर्थन किया होता तो शायद पार्टी की संभावित गठबंधन में ऐसी कमजोर स्थिति नहीं बनती। इसीलिए विपक्षी गोलबंदी की कोशिशों के लिहाज से बसपा के समर्थन से सपा की कामयाबी विपक्ष के लिए भले ही सकारात्मक हो मगर सबसे बड़े विपक्षी दल कांग्रेस की अपनी सियासी जमीन और नीचे खिसक गई है।

 

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